अब तक के टुकडे मेरे
कुछ बिखरे और कुछ निखरे
चढती रातों में से
कुछ खिलते और कुछ उतरे
आगोश में क्यों और कैसे
अपने समा जाती हो
अल्फ़ाज़ सीने में क्यों
तुम बोए जाती हो
आकाश का वह जो एक
और चेहरे पे तुम्हारे दो
जागे वह रातभर, और
दिल में जो सुलाए दो
उजियारी होकर नस में
जो हूक जगा जाती हो
माहताब सीने में क्यों
तुम बोए जाती हो
सहलाकर इतनी रातें
मुठ्ठीभर निकले क़िस्से
बने कोइ सरसराहट
कोइ चीखे मेरे हिस्से
इक रात पहनती, दूजी
पहनाती जाती हो
गूँगापन सीने में क्यों
तुम बोए जाती हो
No comments:
Post a Comment