Saturday, January 21, 2023

गूँगापन

अब तक के टुकडे मेरे

कुछ बिखरे और कुछ निखरे

चढती रातों में से

कुछ खिलते और कुछ उतरे

आगोश में क्यों और कैसे

अपने समा जाती हो

अल्फ़ाज़ सीने में क्यों

तुम बोए जाती हो


आकाश का वह जो एक

और चेहरे पे तुम्हारे दो

जागे वह रातभर, और

दिल में जो सुलाए दो

उजियारी होकर नस में

जो हूक जगा जाती हो

माहताब सीने में क्यों

तुम बोए जाती हो


सहलाकर इतनी रातें

मुठ्ठीभर निकले क़िस्से

बने कोइ सरसराहट

कोइ चीखे मेरे हिस्से

इक रात पहनती, दूजी

पहनाती जाती हो

गूँगापन सीने में क्यों

तुम बोए जाती हो

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